शेहर दिल्लीमें है इक वो गली
जिस गलीमें उसका घर होगा
जिस घरकी खिडकीके आगे
ज़ुल्फ़ें फैलाये वो बैठती होगी
वहीँ संवारती होगी केश अपने
हाथोंसे बारबार संभालती होगी
दो नैन, बड़े बड़े, जादूसे भरे, उनसे
जाने किसका रस्ता निहारती होगी
मुझे खोजनी है वो गली, वो खिड़की
उस रास्ते पर बार बार चलना है
देखना है झरनोंके जैसे बिखरे बालों को
पतली उंगलियोंको उन्हें संवारते
दाहिने कंधे पर कभी गर्दन के पीछे फैले
या कभी यूँ ही उलझे, खुद उसकी तरह
देखने उन आँखों में एक बार अपना चेहरा
या ऐसे ही उन्हें आसमान ताकते निहारते
मुझे देखना है उसे इक बार, बार बार
हो सके तो सुनना है उसे गुनगुनाते हुए
लिखना है उसे किसी कवितामें या
कोई चित्र बना लेना है उसका, जिसे
देख सकूँ बिना रुके, छू सकूँ उंगलियोंसे
की उसके गेशोंको खुशबु आये मुझतक
ये मेरे ख्वाब हैं, मेरे ख्वाब कविता बनकर
खोज रहे हैं उस खिडक़ीवाली लड़कीको
Comments
Post a Comment