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Showing posts from March, 2023

माजरा क्या है

उसने बड़े दिनों में किया है याद, माजरा क्या है  कोई शिकायत है या फ़रियाद, माजरा क्या है  टूटकर बिखर गया था, अब समेट चूका हूँ खुदको  दिख रहे फिर पत्थर उसके हाथ, माजरा क्या है  दिल भी तोड़ा मेरा, इलज़ाम भी लगाया मुझपर  गज़ब है की आज फिर वही बात, माजरा क्या है  आंसूंओंसे भीगे रुमाल लिए लौटा करता था मैं  वही इश्क़ औ मैं भी, वही हालात, माजरा क्या है  पहले चूमि हथेली फिर आंसू गिराए, भींच दिया   मुट्ठीमें समा जाएँ इतने जज़्बात, माजरा क्या है 

इस कहानी का कोई अंजाम उनसे पूछना

इस कहानी का कोई अंजाम उनसे पूछना  ना पूछना मेरी खबर ना नाम उनसे पूछना  जो चुप रहें वो भेद मनका जान ही तो जाओगे  फिर हैं कैसे दिन क्यों कैसी शाम उनसे पूछना काले रंग की डायरीमें अब तलक छुपाये हैं  किस दीवानेने लिक्खे पयाम उनसे पूछना  शेर जिसके गुनगुनाते रेहते हो दिनरात तुम  दोगे उस कविको क्या इनाम उनसे पूछना  वक़्त सारा खो दिया, इक इश्क़की तलाशमे  कैसा नाकारा हूँ क्यों बदनाम उनसे पूछना  आया नहीं बाज़ारमें हमें बेचना अपना हुनर  राज क्यूँकर रेह गया गुमनाम उनसे पूछना 

मिलते ही निगाहें उसके तेवर पहचानते हैं

मिलते ही निगाहें उसके तेवर पहचानते हैं  समंदरके मुसाफिर हैं हम, भंवर जानते हैं  हमसे मिलो जब भी खुदको संभाले रखना इश्क़ करते हैं औ निभानेका हुनर जानते हैं  एक मुस्कानने बता दी ग़मकी सारी कहानी  बोहत तजुर्बे हैं, टूटे दिलका असर जानते हैं  होली-दीवाली मिलने आ जाते हैं दोस्त सभी  याद बोहत आता है शायद मुझे घर जानते हैं  तूफ़ानोंका खौफ तो कबसे जाता रहा राज भीगे पंख लिए उडनेका हम जोहर जानते हैं  

ईशारों ही ईशारोंमें सब बात होती

ईशारों ही ईशारोंमें सब बात होती  सफरमें जब उससे मुलाकात होती  अजनबी ज्यों वाकिफ़ हैं, काश वैसे  उसे भी कुछ हमारी मालूमात होती  दुआ क़ुबूल हो गर तो तेरे बिना मेरा   ना ही कोई दिन होता, ना रात होती  ज़ुल्फ़ बिखेरे हुये मुझसे मिलने आते  इससे बढ़कर और क्या सौगात होती  छींटे उड़ाने वाले, नज़रें मिलाएं कभी  मेरे दुश्मनकी इतनी तो औकात होती  ख़ामोशी से ऊब गया हूँ, ये सोचता हूँ  बेहल जाता मन जो कोई वारदात होती  अच्छा होता की बैर ही पाल लेते दोस्त इस झूठे तकल्लुफ़से तो निजात होती  किसे जाना है स्वर्ग, मोक्ष किसे चाहिए  खुश होते जो तेरे पेहलुमें वफ़ात होती  इश्क़ लिखते, प्यार पढ़ते, गाते चाहत  कुछ ना होता मगर इतनी हयात होती 

ऐसा क्या है जो ये हो नहीं सकता

ऐसा क्या है जो ये हो नहीं सकता  हूँ इंसान मैं भी, क्यों रो नहीं सकता  तेरा ग़म है तुझसे ज़्यादा अज़ीज़  तुझे खो दिया, इसे खो नहीं सकता  कुशल तैराक हूँ, येही सोच कूदे थे ना  क्या लगा, इश्क़, मुझे डुबो नहीं सकता आँखोंके दरियामें उसके सयाने हुए गुम  मैं तो फिर दीवाना, क्यूँ खो नहीं सकता  बेवफा केह दिया ज़रासी नाराजगीमें मुझे  रूह पे लगाया है दाग, ये धो नहीं सकता  जवाब उनके भी हैं, सवाल जो पूछे ही नहीं  दिल पर इतना बोझ, अब ढो नहीं सकता  मेरा हो ना हो, खुश वो सदा रहे, दुआ मेरी  यदि भाव ये ना हों तो वो प्रेम हो नहीं सकता

खिडक़ीवाली लड़की

शेहर दिल्लीमें है इक वो गली  जिस गलीमें उसका घर होगा  जिस घरकी खिडकीके आगे  ज़ुल्फ़ें फैलाये वो बैठती होगी  वहीँ संवारती होगी केश अपने  हाथोंसे बारबार संभालती होगी  दो नैन, बड़े बड़े, जादूसे भरे, उनसे  जाने किसका रस्ता निहारती होगी  मुझे खोजनी है वो गली, वो खिड़की  उस रास्ते पर बार बार चलना है  देखना है झरनोंके जैसे बिखरे बालों को  पतली उंगलियोंको उन्हें संवारते  दाहिने कंधे पर कभी गर्दन के पीछे फैले  या कभी यूँ ही उलझे, खुद उसकी तरह  देखने उन आँखों में एक बार अपना चेहरा  या ऐसे ही उन्हें आसमान ताकते निहारते  मुझे देखना है उसे इक बार, बार बार  हो सके तो सुनना है उसे गुनगुनाते हुए  लिखना है उसे किसी कवितामें या  कोई चित्र बना लेना है उसका, जिसे  देख सकूँ बिना रुके, छू सकूँ उंगलियोंसे  की उसके गेशोंको खुशबु आये मुझतक  ये मेरे ख्वाब हैं, मेरे ख्वाब कविता बनकर  खोज रहे हैं उस खिडक़ीवाली लड़कीको 

अंदाज़ देखे बोहत मगर

अंदाज़ देखे बोहत मगर कोई उनसा नहीं था  कितना दिलपर है असर मुझे अंदेसा नहीं था  कुछ तो रही होगी अलग बात फागुनमें अबकी  रंग जो खिला है गालों पर पेहले ऐसा नहीं था  वो जब भी ख़यालोंमे आया, गीत बनकर आया  गुनगुनाया उसे सदा मगर कभी लिक्खा नहीं था  चारागर वो कमाल, जाने कैसे कर रहा इलाज  तुम आशिक़ हो या बीमार कभी पूछा नहीं था  थक गया हूँ सफरमें घूमते, नये नज़ारोंको देखते  किसी पुराने मंज़रक़ा इंतज़ार मुझे ऐसा नहीं था 

होली हो अपनी

रंगोंके उमड़ें जब बादल तो होली हो अपनी  छलकें पिचकारीसे सागर तो होली हो अपनी एक बरस पूरा बीता बस इस क्षणकी प्रतीक्षामें  निकलें वो घरसे जब बाहर तो होली हो अपनी अबीर, गुलाल, सिंदूर सभी रंग उतर ये जाएँगे  रंगे हमें आँखोंका काजल तो होली हो अपनी बरसें चारों मेघ मगर फागुन ये अधूरा रेह जाये  जो भीगे प्रियतमका आँचल तो होली हो अपनी लाली खुलती सुब्हा की, श्यामा रात दीवालीसी  खिलें रंग मखमली गालों पर तो होली हो अपनी छेड़-छाड़ औ खींच-तान, इनका है आनंद अलग  यदि बाहोंमे आये खुद चलकर तो होली हो अपनी वर्ण सभी, सारी रौनक, शोभा सब तुमसे जीवनकी  नित देखो हमें यूँ ही मुस्काकर तो होली हो अपनी 

करता नहीं

बदल जाता है हर रिश्ता वक़्त के साथ  दिल ये सच भी स्वीकार करता नहीं वो जो कहता था साथ जीवनभर रहूँगा  फ्रेंड रिक्वेस्ट भी एक्सेप्ट करता नहीं  सचमुच नाराज़गी हो तब भी मना लेता  झूठी कोशिश भी अब वो करता नहीं  आँख खुलती रोज़ गुड-मॉर्निंगसे जिसकी  मैसेजके रिप्लाई भी अब करता नहीं