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हो सकता है

प्यार करलो जी भरके आज ही, 
कल बदल जाएँ हम-तुम हो सकता है
ज़िन्दगी पकड़लो दोनों हाथोंसे, 
वक़्त इस पल में ठहर जाये हो सकता है

जो बीत चूका वो ख़यालों में अब भी ज़िंदा है 
पहली मुलाक़ात और सफ़ेद जोड़ेमें सजी तुम 
बंद होते ही आँखें देख लेता हूँ, पलंग पर बैठे 
और गुलाब की खुशबु से महकती हुई तुम
यादों से मेरी तुम चली जाओ कभी ना होगा 
मैं खुद ही को भूल जाऊँ हो सकता है 

दो थे हुए एक, जिंदगीके सफरमें हम 
तस्वीरोंको नए रंग मिले जब तुमसे मिले हम 
फुलवारीमें खिले नए फूल, तुम्हारी मुस्कान लिये
मकान घर बन गए, जब तुमसे मिले हम 
बैठ फुर्सतमें टटोलें पुराने किस्से, और
हम उन्हींमें लौट जाएँ हो सकता है  

बरसों की कश्मकशने बदल दिया है चेहरे को
रंग रूप भी जिंदगीके साथ घट-बढ़ गए हैं 
जो लहराते थे खुल के हवाओं में, घटाओं से 
तुम्हारी साडीके नीचे जुड़े में बंध गए हैं 
सुबह सुबह उन भीने केशों को तुम खोलो 
और सावन आ जाये हो सकता है

मैं और भी बदलूंगा आने वाले वक़्त में
तुम भी शायद ऐसी नहीं रहोगी
जिम्मेदारियां घेरेंगी और भी हमको
बच्चोंकी फरमाइशें कम नहीं होगी 
ऐसे मशरूफ वक़्तमें ये अल्फ़ाज़ पढ़ें और 
मोहब्बत ज़िंदा हो जाए हो सकता है 

"कुछ भी" तकल्लुफ सा बन गया है तुम्हारा
कई सफ़े इस लफ्ज़ में कह जाती हो
नाराज़ ही रहते हैं हम अक्सर एक दूसरेसे
रूठी किस बात पे भूल जाती हो 
बेवजह के झगड़ों की एक बार हीमें माफ़ी ले लूँ
गलत शायद कोई ना हो, हो सकता है 

कुछ वक़्त से घर में क़ैद से बैठे हैं और 
ज़ज़्बात लफ़्ज़ोंमें बाहर निकले 
अब भी मिलना छुपकर, दूर से देखना 
तेरह बरस यूँ लुकाछुपी में निकले 
कभी डिनर डेट पर फिर चलें मियां-बीवी 
और मोहब्बत हो जाए हो सकता है

Comments

  1. Mind blowing Raj... keep posting

    AlokJani

    ReplyDelete
  2. Supperrr se bhi uperrr very nice line

    ReplyDelete
  3. Supperrr se bhi uperrr very nice line

    ReplyDelete
  4. Wowwww lovely poem Raj. Keep posting and keep loving...

    ReplyDelete
  5. ભાઈ બીબી કે ઉપર ઇસસે અચ્છી કવિતા હો નહિ શકતી. ઘાયલ કર દિયા.

    ReplyDelete
  6. कुछ वक़्त से घर में क़ैद से बैठे हैं और
    ज़ज़्बात लफ़्ज़ोंमें बाहर निकले
    अब भी मिलना छुपकर, दूर से देखना
    तेरह बरस यूँ लुकाछुपी में निकले
    कभी डिनर डेट पर फिर चलें मियां-बीवी
    और मोहब्बत हो जाए हो सकता है
    Superb

    ReplyDelete
  7. Good Raj....More and more.....

    ReplyDelete

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कभी ना थे.....

हालात इतने बदतर कभी ना थे  दिलों पे पत्थर कभी ना थे  माना की आप दोस्त नहीं हमारे दुश्मन भी मगर कभी ना थे  लाख छुपाएं वोह हाले दिल हमसे  अनजान मन से हम कभी ना थे ग़म का ही रिश्ता बचा था आखिर  ख़ुशी के यार हम कभी ना थे  कौन हौले से छू गया मन को  नाज़ुक अंदाज़ उनके कभी ना थे चीर ही देते हैं दिल बेरहमीसे  बेवजह मेहरबान वोह कभी ना थे  नज़रों की बातों पे भरोसा करते हैं  शब्दों के जानकार तो कभी ना थे  बिन कहे अफसानों को समझ लेते हैं  लफ़्ज़ों के मोहताज कभी ना थे  सामने तो अक्सर आते नहीं गायब सरकार मगर कभी ना थे याद ना करें शायद वोह हमें  भुलने के हक़दार मगर कभी ना थे 

एक पूरानी कविता

है चाह बस इतनी की हर सर ऊँचा रहे,  आग सिर्फ दिए में हो, महफूज़ हर कूँचा रहे; रहे हिफाज़त से हर ज़िन्दगी, घर की माँ-बेटी-बहु; रोटी और ज्यादा सस्ती हो और महँगा हो इन्सान का लहू. ज़ात पूछे बिना खाना खिलाया जाए धर्म जाने बिना साथ बैठाया जाए रंग और जन्म का फर्क हटा दें लायक को ही नायक बनाया जाए ज़िन्दगी बेशकीमती सिर्फ किताबों में न रहे ज़ालिम आकाओंकी पनाहों में न रहे मजलूम, मजबूर न हो खूँ पीनेको  सितमगरका सुकूनो इज़्ज़त से मैं भी रहूं रोटी और ज्यादा सस्ती हो और हो सके उतना महँगा हो इन्सान का लहू It was 2001 and I was in my final year of B.Sc. I had always been inclined towards theatres and plays & there was an opportunity to perform in our college. I don't really remember whether it was a youth-festival or some other program but I do remember that I had written this play. The play was about a mental asylum that portrayed the civil society and it's complexity. Play had various characters like politicians, police, municipal workers, doctor, teacher and other members of a...