काश पाल लेते कुछ ऐब, कुछ आवारगी,
कुछ गुरुर औ बेग़ैरती
चंद दोस्त अपने भी जो होते,
तो शेर यूँ तनहा तो ना होते
या सिर्फ किताबों से ही यारी रखते
बातें कविताओं से ही करते
तो ना उठती ये टीस यूँ अक्सर
शायद ये बिछड़नेके एहसास ना होते
क्या होता अगर ये ना होते
ना बीते होते साल गपोंमें
बर्दास्त कर लेते कुछ मज़ाक
या एक सुट्टा लगा लिए होते
खुद के लिए बना लेते एक मुकाम
या बटोर लेते नामो-शोहरत औ पैसे
देख कर उन्हें मिल जाते ख़ैरख़्वाह
तो शायद कवितामें यूँ विलीन ना होते
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