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Showing posts from November, 2020

क्युँ?

कोई पूछे ये इंतज़ार क्युँ? बतादो दिलमे प्यार क्युँ? जानते तो वो भी होंगे हाल अपना  क्या बताएं हम बेक़रार क्युँ? अँधेरे तो आते हैं आते रहेंगे  हम मुकाबलेमें दीप जलाते रहेंगे  जंग क़यामत तक है भली-बदी में  समझे ये हमसे तकरार क्युँ?

थक चूका हूँ मैं

बस करो यारों, थक चूका हूँ मैं  सुन सुन के नसीहत, थक चूका हूँ मैं  क्या क्या तीर मारे हैं जमानेमे तुमने  मुझे मत बताओ, थक चूका हूँ मैं  चैन से सोने भर की ख्वाहिश है  कुछ ना कहने ना करने की ख्वाहिश है  तुम अपनी शान के कसीदे खूब गाओ  मेरे कानों को बक्शो, थक चूका हूँ मैं  एक और बेवजह का ऐलान कर दिया  सरकारने फिर से हमें हैरान कर दिया  होगा कुछ नहीं, ना कुछ करने की दानत है  दिखावे हैं, इन दिखावों से थक चूका हूँ मैं  लाइलाज है बीमारी बता चुके हो मुझे  फिर भी लम्बे चौड़े बिल थमा चुके हो मुझे  कुछ नया तो कर नहीं पाते हो तुम ही  पुराने फैलसफे मत झाड़ो, थक चूका हूँ मैं मेरी परवाह हो तो कोई ज़मीनी काम करलो  लगाओ तिकड़म, वीआईपी सारे आम करलो  तुम्हारी रैलियां और पार्टियाँ सबसे ज़रूरी हैं माना  मेरे त्यौहारों को मत छीनो, थक चूका हूँ मैं  भद्दा एक मज़ाक बन गयी है ज़िन्दगी राशन और सब्जी की कतार में कटते हुए  रोज शाम नए फतवे निकाल कर इसे  बिग बॉस मत बनाओ, थक चूका हूँ मैं 

मेरा इश्क़

खामोश समंदर सा इश्क़ है मेरा  गहराइयों का पता लगा न सकोगे कितने ही बहाने बनालो खुदसे  दिलसे मुझे भुला न सकोगे  जलता दिया नहीं सूरज की रौशनी सा है  आंधियां कितनी भी हो वजूद मिटता नहीं  गर जला भी दे ज़माना तो और निखर जायेगा  ज़र-ऐ-इश्क़ को अंगारों से बुझा न सकोगे 

तेरा एहसास

तेरे शहर की गलियों से गुज़रे  न जाने कितने दिन रात मेरे  एक दीदार की ख्वाहिश में  दोपहरें यारों की छतों पे कटीं  कॉलेज से घर तक का रास्ता जो  दुपट्टे की सरसराहट से गूंजता था  कई बार दिल लौट जाता है वहीँ तेरे एहसास को ढूंढते हुए

गणेश वंदना

गजानन हो स्वीकार ये अर्चना  कार्य जो भी कठिन हो सुगम कीजिये  निवेदन है प्रथमेश कविता का ये  लेखनी की त्रुटि सारी हर लीजिये  व्याकरण और भाषा का संधान हो  ऐसे छंदों की रचना करवाइये  जो भी शब्दों में कमियाँ दिखाई पड़ें  भावना की सच्चाई से भर दीजिये 

सरस्वती स्तुति

माँ शारदे तुझको नमन, इतनी किरपा करदे  लिखने को दे भाव नए और कविता को हुनर दे  गद्य पद्य सब साध्य करुँ , बोली-भाषा उत्तम हों  मुक्तक सहज ह्रदय छू लें, शब्दों को ये असर दे

Happy Deewali

लाल कौशल्या के लौटकर आएं हैं  जानकी के पति आज घर आए हैं  है अँधेरा घना सारा छंट जायेगा   दीप खुशियों उम्मीदों के प्रगटाए हैं  घर से निकले थे युवराज पद छोड़कर  संग लखन जानकी के अवध छोड़कर  कैसी कैसी परीक्षाएं जीते हैं तब  वर्ष चौदह में भगवान बन पाए हैं  धूल घर और मन की झटक दी गयी  नए लीपन दीवारों पे लगवाए हैं  संकटों से घिरे इस कठिन दौरमें  नयी आशा सभी के लिये लाए हैं  नए वस्त्रों, नए सारे श्रृंगार में  रौशनी झिलमिलाती है त्यौहार में  मिठाई, दीये और रँगोलियाँ  खूब खाये, जलाये, बनवाये हैं  फुलझड़ी हैं चमकती अनारों के संग  चकरी भी तो पटाखों के संग आयी हैं  रस्सियां जल रहीं,  सांप फुंफकारे हैं  आतिशें सब हवाई चलवाये हैं  ये दुआ है हमारी की बरसें बोहत  रौनकें और ख़ुशियाँ तुम्हारे लिए  जो भी तुमसे जुड़ा हो उसे भी मिलें  कामनाओंके फल शुभ जो भिजवाए हैं  दिन दीवाली का आता नहीं रोज़ है  रोज़ मिलते नहीं दोस्त यारों से अब  दूरियां तो ज़माने की ताकीद हैं  मन से मन ...

कड़वाहट

मेरे भीतर चलता रेहता  युद्ध जो लम्बे अरसे से  रोज़ हार कर लड़ने का  रोज़ जुटाता साहस हूँ काल है बसता माथे में  जो नाशकी ओर धकेल रहा  कड़वाहट भर सीने में  मन में ज़हर उड़ेल रहा  गलत शब्द गलत बातें  चाहे जितनी कोशिश कर लूँ  मुझसे होकर रहती हैं  ना जाने किस अंत की ओर  मेरा जीवन दौड़ रहा  वैसे तो सब कुछ है मिला  पर जैसे कुछ भी मिला नहीं  खुदसे ही नाराज़ी है औरों से कोई गिला नहीं  कहाँ से आया है मुझमे  या पहले ही बसा हुआ  ये नफरत का ज्वाला जाने  कब से अंदर जला हुआ  ना कोई काम ही होता है  ना संतुष्टि मिलती है  सुबह से लेकर राततक  बस वक़्त काटता रहता हूँ  माँ बाप दुखी, दुखी पत्नी  बेटे बेटी भी सुखी नहीं  परिवार है ऐसे साथ साथ  पर सम्मान ना पाता हूँ  दोस्त यार जो भी थे मिले  ज्यादातर सब छूट गए  जो बचे रहे या नाम के हैं  या मतलब देखकर रुठ गए  सबको खुश करते करते  अब सबसे गुस्सा रहता हूँ  अपने मन को बहलाने के  ज़रिये खोजता रहता हूँ  ये...

मज़हबी सियासत

क्यों ये ज़िद, कैसी ये आफत है,  बात मज़हब की, हो रही सियासत है  नमाज़ क्यों मंदिर में, क्यों मस्जिदमे पूजा  अपनी अपनी जगह भक्ति औ इबादत है  बुराई को बुरा केहनेसे मत डरो  इन हलातोंकी ज़िम्मेदार यही आदत है  भाई भाई के नारोंने बेडा गर्क किया चीन हो या पाक दोनों बेगैरत है  मुसलमाँको जो आज़ादी और सुकूँ की तालिब   हिन्दुकी भी तो अरदास वही इज़्ज़त है  आग को है आवश्यक डर पानी का  गुनाहों को रोकती अंजामकी देहशत है  लंका हो मगध या हस्तिनापुर  नाश हों पापी तभी हिफाज़त है  पडोस के गुंडे से दब जाना  दुःख को न्योता देती ये हरकत है  तलवार का काम दीयों से नहीं होगा  बार बार ज़ुल्म सहना भी ज़िल्लत है  हाथों से ना सही दिल से तो लड़ो  आत्मरक्षा की कानून में इज़ाज़त है  जिसके खिलाफ हो उस जैसा मत बनो  अपनी पहचान बनी रहे यही हसरत है 

कामयाबी से पेहले

सोच की दीवारें ख़यालों के पेहरे हैं  कठिनाइयाँ तसव्वुरमें बेवजह ठेहरे हैं  ख्वाब देखनेमें गँवा दिए जो मौके  नज़र आते नहीं ज़ख्म उनके गेहरे हैं  हालात देखकर मेलजोल बदल लेते हैं दोस्त रिश्तेदार सब के कई चेहरे हैं  थोड़ा मतलबी हो जाएँ ये भी जरुरी है  सादगीको कहाँ कामयाबी के सेहरे हैं  हुनर ही नहीं ढिंढोरा भी चाहिए  भीड़ ज़्यादा और फ़ैसलासाज़ बेहरे हैं  कदम वापस हों तो शिकस्त मत समझना  पीछे लौटकर ही आगे बढ़ती लेहरे हैं  शख़्सियत में नमक रक्खो बचाव जितना  समंदर से क्या कभी निकली नेहरे हैं  सरलता सफल होने के बाद छजती है  नाकामीके कोई मुकाम न देहरें हैं