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भारत की बेटी

शाम को ऑफिस से निकलकर
घर जाते हुए
अक्सर वो सेहमी रहती
अख़बारोंवाली वारदातें सच में
सोच डरती रहती 
दूर का सफर, बस और रिक्शेमें
अजनबियों से घिरे हुए
कुछ देर तक सहेलियां साथ होती
आगे केवल अकेलापन
रोज़ किसी न किसी सहेलीको
फ़ोन लगा बात करती 
घर तक
इस डरसे की खाली देख
बात न करने लगे
बात से बात आगे न बढ़ने लगे
ये न समझे
की आसान है
सार्वजनिक सामान है 
आवारा न कहे
इशारा न करे
पास न आये
उंगलिया न छुआए 
नज़रें झुका के रखती है
देखकर बैठती उठती है
गर कोई पसंद भी हो
मुस्कुराती नहीं
कोई पहचान का हो 
तो भी बुलाती नहीं
अपने स्टॉप पे उतरकर
रिक्शा पकड़ती 
औरों से बचने खुदको 
सिकोड़ती 
घर पहुंचकर
माँ बाबा को देख
आँखों से ही मुस्कुरा देती
चेहरेसे दुपट्टा हटाती
छोटे भाई बहनसे दिनके हसीं
किस्से सुनती
और मनाती की
आज़ाद भारतमें 
बहनों को बस या रिक्शे
में न आना पड़े
शाम को ऑफिस से निकलकर

Comments

  1. बढ़िया आज के परिवेश पर पेनी नज़र।

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कभी ना थे.....

हालात इतने बदतर कभी ना थे  दिलों पे पत्थर कभी ना थे  माना की आप दोस्त नहीं हमारे दुश्मन भी मगर कभी ना थे  लाख छुपाएं वोह हाले दिल हमसे  अनजान मन से हम कभी ना थे ग़म का ही रिश्ता बचा था आखिर  ख़ुशी के यार हम कभी ना थे  कौन हौले से छू गया मन को  नाज़ुक अंदाज़ उनके कभी ना थे चीर ही देते हैं दिल बेरहमीसे  बेवजह मेहरबान वोह कभी ना थे  नज़रों की बातों पे भरोसा करते हैं  शब्दों के जानकार तो कभी ना थे  बिन कहे अफसानों को समझ लेते हैं  लफ़्ज़ों के मोहताज कभी ना थे  सामने तो अक्सर आते नहीं गायब सरकार मगर कभी ना थे याद ना करें शायद वोह हमें  भुलने के हक़दार मगर कभी ना थे 

हो सकता है

प्यार करलो जी भरके आज ही,  कल बदल जाएँ हम-तुम हो सकता है ज़िन्दगी पकड़लो दोनों हाथोंसे,  वक़्त इस पल में ठहर जाये हो सकता है जो बीत चूका वो ख़यालों में अब भी ज़िंदा है  पहली मुलाक़ात और सफ़ेद जोड़ेमें सजी तुम  बंद होते ही आँखें देख लेता हूँ, पलंग पर बैठे  और गुलाब की खुशबु से महकती हुई तुम यादों से मेरी तुम चली जाओ कभी ना होगा  मैं खुद ही को भूल जाऊँ हो सकता है  दो थे हुए एक, जिंदगीके सफरमें हम  तस्वीरोंको नए रंग मिले जब तुमसे मिले हम  फुलवारीमें खिले नए फूल, तुम्हारी मुस्कान लिये मकान घर बन गए, जब तुमसे मिले हम  बैठ फुर्सतमें टटोलें पुराने किस्से, और हम उन्हींमें लौट जाएँ हो सकता है   बरसों की कश्मकशने बदल दिया है चेहरे को रंग रूप भी जिंदगीके साथ घट-बढ़ गए हैं  जो लहराते थे खुल के हवाओं में, घटाओं से  तुम्हारी साडीके नीचे जुड़े में बंध गए हैं  सुबह सुबह उन भीने केशों को तुम खोलो  और सावन आ जाये हो सकता है मैं और भी बदलूंगा आने वाले वक़्त में तुम भी शायद ऐसी नहीं रहोगी जिम्मेदारियां घेरेंगी और भी हमको बच्चोंकी फरम...

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