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Showing posts from April, 2021

तुम्हें याद करते

तुम्हें याद करते ज़माने बीत गये  हारे हैं हर बार फिर भी जीत गये  तुझसे ही शुरू, तुझमें ही ख़त्म,  मेरी नज़्म, मेरी गज़लें, मेरे सारे गीत गये  हारे हैं हर बार फिर भी जीत गये  कहीं ज़िक्र हो तुम्हारा या नाम ले कोई  कोई बात छिड़े या मेरा दामन थाम ले कोई  कभी गुज़रें गलियोंसे जहाँ  उँगलियों ने छुआ था हाथों को  कभी गुलाब की पंखुड़ियों से  तस्वीरों का काम ले कोई  आ जायेंगे नज़रोँके आगे, लम्हे जो बीत गये  हारे हैं हर बार फिर भी जीत गये  क्या खत रक्खे हैं अब भी छुपाकरके मेरे  क्या याद है मिसरे अब भी ग़ज़लोंके मेरे  क्या हरा रंग अब भी तुमको उतना ही भाता है  क्या दिल धड़क जाता है अब भी नाम पर मेरे  इन्हीं सवालोंमें फुर्सतके सारे पल बीत गये  हारे हैं हर बार फिर भी जीत गये  कांपते होंठों की थरथराहट भूले नहीं  तेरे कदमों की आहट भूले नहीं  याद हैं बड़ी बड़ी आँखों की हया  चेहरे की मुस्कराहट भूले नहीं  खुशबु ज़ुल्फोंकी भूली नहीं,  मौसम कितने ना जाने बीत गये  हारे हैं हर बार फिर भी जीत गये मुलाक़...

ध्यान हो

माहौल बदल रहा है, ध्यान हो  देश कैसे चल रहा है, ध्यान हो  फेंक कर जा रहे, जिन्हें गोद लिए बैठे थे  गोत्र तक बता रहे, जो सेक्युलर बने बैठे थे  भेड के लिबासमें घूमते, भेड़ियेकी पेहचान हो माहौल बदल रहा है, ध्यान हो  दादा के नहीं दादी के धर्म से जुड़ रहे हैं  पारसी, ईसाई हो लिए, अब पंडित बन रहे हैं  रिवायत उनकी गद्दी रहे, देश चाहे कुर्बान हो  माहौल बदल रहा है, ध्यान हो  बादशाहों के बेटे बनकर हमको डरा रहे  यूँ बंटे हुए रेहने के अंजाम दिखा रहे  है ज़रूरी की अपने पराये का अब ज्ञान हो  माहौल बदल रहा है, ध्यान हो  मरी है व्याप्त और मृत्यु का नर्तन भयंकर  है रोग से दुष्कर मनुज के मन का ये डर  उपचार से बढ़कर भी पूर्वावधान हो  माहौल बदल रहा है, ध्यान हो  वयस्क तन हुआ है मन बड़ा चंचल अभी  यादें उमड़ती जब नाम भूले कोई ले कभी  हृदयकी उर्मियों पर विवेकका संधान हो  माहौल बदल रहा है, ध्यान हो  शब्द खुद ही जुड़े और वाक्य बनते गये  मुक्तक एक के बाद एक शक्य बनते गये  कविता की निधि का खूब ही सन्मा...

आजकल शाम ज़िन्दगीकी

आजकल शाम ज़िन्दगीकी बेवजह, गमगीन हो जातीं हैं  बीतें कल की यादें अक्सर, हमनशीन हो जातीं हैं  अब तक क्या जमा, क्या घाटा रहा, हिसाब बेमानी है  लुटा दी सब दौलत, हाथ ख़ाली, हालत संगीन हो जातीं हैं  एक ग़ज़ल चंद शेर जब लिख लेता हूँ सुकून से  बोझ उतर जाते हैं दिल से, आँखें ख़ुश्किन हो जतिन हैं 

विलीन

काश पाल लेते कुछ ऐब, कुछ आवारगी,  कुछ गुरुर औ बेग़ैरती  चंद दोस्त अपने भी जो होते, तो शेर यूँ तनहा तो ना होते  या सिर्फ किताबों से ही यारी रखते  बातें कविताओं से ही करते  तो ना उठती ये टीस यूँ अक्सर  शायद ये बिछड़नेके एहसास ना होते  क्या होता अगर ये ना होते  ना बीते होते साल गपोंमें  बर्दास्त कर लेते कुछ मज़ाक  या एक सुट्टा लगा लिए होते  खुद के लिए बना लेते एक मुकाम  या बटोर लेते नामो-शोहरत औ पैसे  देख कर उन्हें मिल जाते ख़ैरख़्वाह तो शायद कवितामें यूँ विलीन ना होते 

Month end

उलझे थे जो प्रश्न, सब सुलझ जायेंगे  खोये हुए रास्ते, पथिकों को मिल जायेंगे  जो ना हुआ पुरे महीने, आज ही होगा  अटके थे जो आर्डर, सब निकल जायेंगे  मिल जायेंगे क्लाइंट, चेक साइन होंगे  टार्गेट के गैप यकायक कवर हो जायेंगे  तीस दिन सोये, वो निन्द्रासन से जागेंगे  रेंगने वाले प्राणी, उलटे पैर भागेंगे  कमाल जितने हो सकेंगे, आज कर देंगे आखिरी है तारिख, आज काम भी कर जायेंगे