पत्थरोंकी भीडमें फंसा आदमी जो चाहकरभी निकल पाता नहीं घिरा है कश्मकशमें ऐसी की हर सांस उसकी मुश्किल हुई आह उसकी सुनके कोई सदा देता नहीं छोड़ा है उसे सबने जैसे बेजान पत्थर कोई काश! काश कोई जाए और समझाए उसे ज़्हिंदगीके मायने सही, कोई बतलाये उसे डर है वर्ना, वो बच नहीं पायेगा घुट घुट कर बहुत, वहीँ मर जायेगा जाओ सम्भालो उस पागल दीवाने को छोड़कर चला है वो सारे ज़माने को की फ़र्ज़ है जिसका बाँटना ज़िन्दगी वो इस हालमें खुद को जिला पाता नहीं चला बदलने ज़मानेको पर खुद ही संभल पाता नहीं पथ्थरोंकी भीड़में फंसा आदमी जो चाहकरभी निकल पाता नहीं
I am not a poet. But these words came to me out of nowhere. I wrote them, read them and re-read them. Only one word could describe what I had written. Hence, they are my Poems.