समय,
बोहत कुछ बहा ले गया
यौवन, दृढ़ता, साहस, स्थिरता
ले गया आशा भविष्यकी
शेष रेह गये भय अवं
भूतकाल
ये जो पौधे मुरझाये से हैं
हरे हुआ करते थे कभी
डालियाँ इनकी भी
वृत्ताकार फैलती थीं
झुकी रहतीं थीं सुन्दर फूलों
मीठे फलों से कभी
सावनमे उन फल-फूलों से निकलकर
बीज नयी धरामे समा जाते
कभी तितलियों, कभी पंछियों के सहारे
प्रायः इन पौधोंसे दूर निकल जाते
फिर वहां खिलते नये पौधे,
फूल और फलोंसे लदे हुए
और उनसे जन्म लेते नये पेड़
ऐसे ही हरियाली फैली रहती जगमे
सोचिये यदि पेड़ होते स्वार्थी
अपने बीज दूर ना जाने देते
तो कितने दिन चलता ये संसार?
क्या संभव होता भिन्न रंगोका
होना एक ही जाती के फूलमे?
कुम्हला जाती ना सृष्टि?
क्या होते हम और तुम, या में
मैं
जो उत्पन्न हुआ हूँ
इन पौधोंसे जन्मे बच्चोंसे
मैं
और मेरी देह साक्षी है की
ये पौधे कभी खिलखिलाये थे
इन्होने जिया था एक सम्पूर्ण जीवन
आज भी जी रहे हैं वो मुझमे
तो जबतक मैं हूँ, वो भी हैं
मैं भी जीयूं अपने जीवनको पूर्णतः
आनंद करूँ, हसूं, रोऊँ, खिलूँ और मुरझाऊं
और जो सिमित रह गए हैं तस्वीरों में
जिलाये रखूं अपनेमे उन्हें
यही मेरा तर्पण है उनको
यही श्राद्ध है मेरा
Comments
Post a Comment