अंधेरोंने घेरा जहाँको है ऐसे
किरन एक उम्मीदकी ना नज़र है
मुझे फिर भी अपनी खुदी का यक़ीं
सूरजको तूफानोंमें ढूंढ लूँगा
है मुमकिनकी हालात ही जीत जाएँ
मेरा हर इरादा नाकाम हो भी
शोले भले ही बुझ जाएँ आँधियोंमें
दीपक मगर मैं जला के रखूँगा
नज़दीकियां ही हों दुश्मन जो अपनी
मनको तो मत दूर होने ही दीजे
हाथों से हाथों का ना मेल हो पर
दिलसे गले लगा तो मैं लूँगा
हो गए हम तो क़ैदी अपने ही घरमें
और घर ही के लोगों से पर्दा हुआ है
है देहलीज पर आफतों का बसेरा
किवाड़ोंको मेहफ़ूज़ करता रहूँगा
है मुझपर ये नेमत की अपनी ही छतके
नीचे हूँ नहीं मोहताज़ फिर भी
बिलखती भूखोंकी सुनकर सदाएँ
उन्हें सहारे की आवाज़ दूँगा
जो अपने दर की तलाशों में तन्हा
शहरों से गावों को पैदल चले हैं
उन अनजान चेहरोंमें मुझसे हों मिलते
सारे वो चेहरे पहचान लूँगा
रोटी को बांटने निकले जो बाहर
उनसे कहूंगा की इज़्ज़त भी बांटे
नज़रें झुकें ना हाथ फैले
खैरात भी उन लिहाजों से दूँगा
आकाओंसे क्या उम्मीद करना
कुर्सी ही जिनका है दीनो-इमां
है उसका भरोसा ये जंग भी मैं
उसीके भरोसे पर जीत लूँगा
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