Skip to main content

कभी मिलें तो पूछूँगा उनसे

कभी मिलें तो पूछूँगा उनसे, मेरे बाद कितनी शरारतें बचीं हैं तुझमें 

पूछूँगा की केश फैशन में कटवाये या इसलिये की उन्हें अब सहलाता कोई नहीं 

क्या अब भी बिना टक किये शर्ट के छोर खिंच लेती हो जब भर आये आँखें, या मेरी तरह अब रुलाता कोई नहीं

एक छड़ी जो लेकर चलती थी, अब भी सम्भाले हो?

ठहाके लगाते हुए चने और मूँगफली किसी अजनबी पर उछाले हो?

पार्क के कोने में, काँधे पर सर रखे घंटों बैठना क्या याद है?

कविता के ज़रिए सवाल मुझसे पूछना क्या याद है?

क्या याद है कितनी देर तक ख़ामोश बैठ सकते थे अकेले हम 

या वो बातें जो घंटों चलती थीं मगर सिरा नहिं मिलता था जिनका 

वो साथ बैठे छु जाएँ जो उंगलियाँ अपनी, तब कि कपकपाहट 

और जब मुझे बस स्टैंड आने में लेट हो, तब कि छटपटाहट 

कोई तुझसे कुछ कहे तो मेरा लड़ जाना, या जाते हुए मुड़कर तेरा मुस्कुराना 

वो चुंबन जो कभी लिये नहिं मगर दोनों ने मेहसूस किये 

वो फिल्में देखना, बेसबब घूमना, वो जोरों से हंसना, वो नाराज़ होना 

मेरे बाद ऐसी कितनी आदतें बचीं हैं तुझमें, कभी मिलें तो पूछूँगा उनसे

Comments

Popular posts from this blog

कभी ना थे.....

हालात इतने बदतर कभी ना थे  दिलों पे पत्थर कभी ना थे  माना की आप दोस्त नहीं हमारे दुश्मन भी मगर कभी ना थे  लाख छुपाएं वोह हाले दिल हमसे  अनजान मन से हम कभी ना थे ग़म का ही रिश्ता बचा था आखिर  ख़ुशी के यार हम कभी ना थे  कौन हौले से छू गया मन को  नाज़ुक अंदाज़ उनके कभी ना थे चीर ही देते हैं दिल बेरहमीसे  बेवजह मेहरबान वोह कभी ना थे  नज़रों की बातों पे भरोसा करते हैं  शब्दों के जानकार तो कभी ना थे  बिन कहे अफसानों को समझ लेते हैं  लफ़्ज़ों के मोहताज कभी ना थे  सामने तो अक्सर आते नहीं गायब सरकार मगर कभी ना थे याद ना करें शायद वोह हमें  भुलने के हक़दार मगर कभी ना थे 

हो सकता है

प्यार करलो जी भरके आज ही,  कल बदल जाएँ हम-तुम हो सकता है ज़िन्दगी पकड़लो दोनों हाथोंसे,  वक़्त इस पल में ठहर जाये हो सकता है जो बीत चूका वो ख़यालों में अब भी ज़िंदा है  पहली मुलाक़ात और सफ़ेद जोड़ेमें सजी तुम  बंद होते ही आँखें देख लेता हूँ, पलंग पर बैठे  और गुलाब की खुशबु से महकती हुई तुम यादों से मेरी तुम चली जाओ कभी ना होगा  मैं खुद ही को भूल जाऊँ हो सकता है  दो थे हुए एक, जिंदगीके सफरमें हम  तस्वीरोंको नए रंग मिले जब तुमसे मिले हम  फुलवारीमें खिले नए फूल, तुम्हारी मुस्कान लिये मकान घर बन गए, जब तुमसे मिले हम  बैठ फुर्सतमें टटोलें पुराने किस्से, और हम उन्हींमें लौट जाएँ हो सकता है   बरसों की कश्मकशने बदल दिया है चेहरे को रंग रूप भी जिंदगीके साथ घट-बढ़ गए हैं  जो लहराते थे खुल के हवाओं में, घटाओं से  तुम्हारी साडीके नीचे जुड़े में बंध गए हैं  सुबह सुबह उन भीने केशों को तुम खोलो  और सावन आ जाये हो सकता है मैं और भी बदलूंगा आने वाले वक़्त में तुम भी शायद ऐसी नहीं रहोगी जिम्मेदारियां घेरेंगी और भी हमको बच्चोंकी फरम...

एक पूरानी कविता

है चाह बस इतनी की हर सर ऊँचा रहे,  आग सिर्फ दिए में हो, महफूज़ हर कूँचा रहे; रहे हिफाज़त से हर ज़िन्दगी, घर की माँ-बेटी-बहु; रोटी और ज्यादा सस्ती हो और महँगा हो इन्सान का लहू. ज़ात पूछे बिना खाना खिलाया जाए धर्म जाने बिना साथ बैठाया जाए रंग और जन्म का फर्क हटा दें लायक को ही नायक बनाया जाए ज़िन्दगी बेशकीमती सिर्फ किताबों में न रहे ज़ालिम आकाओंकी पनाहों में न रहे मजलूम, मजबूर न हो खूँ पीनेको  सितमगरका सुकूनो इज़्ज़त से मैं भी रहूं रोटी और ज्यादा सस्ती हो और हो सके उतना महँगा हो इन्सान का लहू It was 2001 and I was in my final year of B.Sc. I had always been inclined towards theatres and plays & there was an opportunity to perform in our college. I don't really remember whether it was a youth-festival or some other program but I do remember that I had written this play. The play was about a mental asylum that portrayed the civil society and it's complexity. Play had various characters like politicians, police, municipal workers, doctor, teacher and other members of a...