वो नज़रों के आगे आये यूँ छुपकर की महताब ओझल हुआ बादलों में परदे का हटना, निगाहों का मिलना दिल ही हमारा फंसा मुश्किलों में शाम के हलके उजाले में छत से कपडे बटोरते हुए खुले बालों से बिखर कर मुझ तक जो पहुंचती थी घने बादलों को देखकर सोंधी सी वही खुशबु समां जाती है रूह में और खुदको उसी छत पर पाता हूँ बिखरी ज़ुल्फ़ोंने करदी बयाँ मुलाक़ात की कहानी अधरों की शरारतें भी सुनी होठों की ज़ुबानी नैनों की बदमाशियाँ आँखों से छुपती कैसे अंगड़ाइयाँ जो करती रहीं सिलवटों से छेड़खानी कुछ देर और बैठो पास नज़र भर देखलें इन लम्हों में ही जी लेंगे हम पूरी ज़िंदगानी बढ़ती ही जाती है जितना भी देखूं तड़प उनके दीदार की जो उठी है दिल को कर दिया बेसबर बस ये न करना था यूँ हलके से उसका ज़िकर बस ये न करना था जिस बेखयाली से उनका दीदार करवाया है तूने पानी को आग से यूँ तर बस ये न करना था छुपालो इन नज़ारोंको परदे के पीछे का राज़ रक्खो दोस्ती गेहरी ही सही मेहफिल का तो लिहाज़ रक्खो ज़ज़्बात कितनी ही उफान लगाएं मगर सब्र को थामो बाज...
I am not a poet. But these words came to me out of nowhere. I wrote them, read them and re-read them. Only one word could describe what I had written. Hence, they are my Poems.