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Showing posts from September, 2022

In reply to megbook99

बस अभी अभी तो मिला हूँ फिरसे तलबगार हूँ मैं  पढ़ा तो थोड़ा ही है अब तलक  बेचैन हूँ, बेक़रार हूँ मैं  यूँ तो सुख़नवर हूँ, भरम है मुझे  आपका तो क़द्रदार हूँ मैं 

कोई मिले

लड़खड़ायें तो सहारा कोई मिले  मझधारमे किनारा कोई मिले  हम भी चैनसे सो लें इक बार गर संदेसा जो तुम्हारा कोई मिले  कहानियोंके किरदार बदल लेंगे  हम घर, शेहर, व्यापार बदल लेंगे  दो कमीज, एक पतलून, साथ हैं अपने  सब छोड़ चल पड़ें, इशारा कोई मिले  लगता है की रूठे हुए हैं आजकल  इतराये या ऐंठे हुए हैं आजकल  छेड़ें या चुम लें, बस मना लें उनको  मौका बातचीतका, दोबारा कोई मिले

श्राद्ध

समय, बोहत कुछ बहा ले गया  यौवन, दृढ़ता, साहस, स्थिरता  ले गया आशा भविष्यकी  शेष रेह गये भय अवं  भूतकाल  ये जो पौधे मुरझाये से हैं  हरे हुआ करते थे कभी  डालियाँ इनकी भी  वृत्ताकार फैलती थीं  झुकी रहतीं थीं सुन्दर फूलों  मीठे फलों से कभी  सावनमे उन फल-फूलों से निकलकर बीज नयी धरामे समा जाते  कभी तितलियों, कभी पंछियों के सहारे  प्रायः इन पौधोंसे दूर निकल जाते  फिर वहां खिलते नये पौधे,  फूल और फलोंसे लदे हुए  और उनसे जन्म लेते नये पेड़  ऐसे ही हरियाली फैली रहती जगमे  सोचिये यदि पेड़ होते स्वार्थी  अपने बीज दूर ना जाने देते तो कितने दिन चलता ये संसार? क्या संभव होता भिन्न रंगोका  होना एक ही जाती के फूलमे? कुम्हला जाती ना सृष्टि? क्या होते हम और तुम, या में  मैं  जो उत्पन्न हुआ हूँ  इन पौधोंसे जन्मे बच्चोंसे  मैं  और मेरी देह साक्षी है की  ये पौधे कभी खिलखिलाये थे  इन्होने जिया था एक सम्पूर्ण जीवन  आज भी जी रहे हैं वो मुझमे  तो जबतक मैं हूँ, वो भी हैं...