फरवरीके इतवारको बैठे, सोच रहा यह व्याकुल मन वैलेंटाइनके पावनपर्व पर, पत्नी को क्या करें अर्पण क्या रुई भरे भालू से उनके मनको ख़ुशी मिल पायेगी क्या बड़ीवाली चॉकलेटको वो डायटिंग छोड़के खायेगी 'हग' और 'किस' को तो शायद मेरा स्वार्थ समझा जाये 'प्रॉमिस' और 'प्रोपोज़' वाली बातोंमें शायद ना आये घरके पीछे एक छोटासा बाग़ जो हमने लगाया है पीला, लाल और पिंकवाला गुलाब उसमें उगाया है हर रंगका अपना अर्थ अलग, सब अपनी जगह ठीक है लेकिन ब्याहके पंद्रह साल बाद, शांति रंग प्रासंगिक है सो हुआ तय की सफ़ेद गुलाब लाकर भेंट किये जाएँ प्रेमसे बढ़कर शांति की है खोज हमें ये बतलायें छेड़, ठिठोली हम करलें, एक मज़ाक और सही घरमें उलझी लड़कीपर, एक कविता और कही सहजीवनकी यात्रामें कभी दृष्टि कभी तुम पाँव, प्रिये तपती दोपहरीमें शीतल पेड़की जैसे छाँव, प्रिये ऐसी कोई भेंट नहीं ना ऐसा कोई भाव, सखी बस प्रेम, समर्पण, चाहत, मेरातेरा लगाव, सखी करलो स्वीकार, फिर एक बार, जो हर बार तुम्हारा है कुछ दुःख हों पर ज्यादा खुशियां ह...
I am not a poet. But these words came to me out of nowhere. I wrote them, read them and re-read them. Only one word could describe what I had written. Hence, they are my Poems.