भोर की पेहली किरन के साथ ये संवाद है दिन नया, अवसर नया, करनी नयी शुरुआत है राह में थे जो भी पत्थर हो भले अब भी खड़े जीत हार गौण है, है मुख्य तुम कैसे लड़े मत रुको, आगे बढ़ो, लक्ष्य प्राप्ति होने तक चलते रहो अविराम मार्ग की समाप्ति होने तक ध्येय मिल जायेगा श्रम करते रहो विश्वास है भोर की पेहली किरन के साथ ये संवाद है मृदु रस्सियों की मार से पत्थर भी कट जाते हों जब बेहती निरंतर धार से पर्वत भी छंट जाते हों जब क्या योग्य है की ना करो तुम यत्न पूरा बार बार चीटियों के झुंड भी कैलाश चढ़ जाते हों जब गिरना सफर का भाग है, मत हो निराश याद कर गिरके ही सीखा चलना था, उठजा के मत फरियाद कर हर अँधेरी रात का तो अंत नया प्रभात है भोर की पेहली किरन के साथ ये संवाद है था सरल कल भी नहीं, ना कल सरल हो जायेगा फेर लो मुंह तो कहीं संकट नहीं टल जायेगा आज डर के भाग लो, पर याद रखना ये सदा कल किसी भी मोड़ पर फिर सामने आ जायेगा विपदाओं की मार जो डिगा दे तुम्हें विश्वास से हो स्मरण की जीत है जो ना थके प्रयास से...
I am not a poet. But these words came to me out of nowhere. I wrote them, read them and re-read them. Only one word could describe what I had written. Hence, they are my Poems.