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Showing posts from July, 2020

हालात से जंग

अंधेरोंने घेरा जहाँको है ऐसे किरन एक उम्मीदकी ना नज़र है मुझे फिर भी अपनी खुदी का यक़ीं  सूरजको तूफानोंमें ढूंढ लूँगा  है मुमकिनकी हालात ही जीत जाएँ मेरा हर इरादा नाकाम हो भी शोले भले ही बुझ जाएँ आँधियोंमें दीपक मगर मैं जला के रखूँगा नज़दीकियां ही हों दुश्मन जो अपनी मनको तो मत दूर होने ही दीजे हाथों से हाथों का ना मेल हो पर दिलसे गले लगा तो मैं लूँगा हो गए हम तो क़ैदी अपने ही घरमें और घर ही के लोगों से पर्दा हुआ है है देहलीज पर आफतों का बसेरा किवाड़ोंको मेहफ़ूज़ करता रहूँगा है मुझपर ये नेमत की अपनी ही छतके नीचे हूँ नहीं मोहताज़ फिर भी बिलखती भूखोंकी सुनकर सदाएँ उन्हें सहारे की आवाज़ दूँगा जो अपने दर की तलाशों में तन्हा शहरों से गावों को पैदल चले हैं उन अनजान चेहरोंमें मुझसे हों मिलते सारे वो चेहरे पहचान लूँगा रोटी को बांटने निकले जो बाहर उनसे कहूंगा की इज़्ज़त भी बांटे नज़रें झुकें ना हाथ फैले खैरात भी उन लिहाजों से दूँगा आकाओंसे क्या उम्मीद करना कुर्सी ही जिनका है दीनो-इमां  है उसका भरोसा ये जंग भी मैं  उसीके भरोसे पर जीत लूँगा